नेताजी सुभाष चंद्र बोस का कोलकाता से पलायन (1941) भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक अत्यंत महत्वपूर्ण और साहसिक घटना है। इस पलायन ने भारत की आजादी के लिए नेताजी के दृढ़ संकल्प और असाधारण साहस को प्रकट किया। आइए इस ऐतिहासिक घटना को विस्तार से समझते हैं:
पृष्ठभूमि
सुभाष चंद्र बोस भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रमुख नेता थे। उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अग्रणी भूमिका निभाई, लेकिन महात्मा गांधी और कांग्रेस के नरमपंथी दृष्टिकोण से असहमत थे। 1939 में कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने के बाद, वे अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ क्रांतिकारी गतिविधियों में जुट गए। उनकी बढ़ती लोकप्रियता और विचारों के कारण ब्रिटिश सरकार ने उन्हें नजरबंद कर दिया।
पलायन की योजना
ब्रिटिश सरकार के कड़े प्रतिबंधों और नजरबंदी के बावजूद, नेताजी ने देश से बाहर जाकर स्वतंत्रता आंदोलन को अंतरराष्ट्रीय समर्थन दिलाने की योजना बनाई।
नेताजी कोलकाता के अपने एल्गिन रोड स्थित घर में नजरबंद थे।
उन्होंने अपने परिवार और कुछ विश्वासपात्र सहयोगियों के साथ एक साहसिक योजना बनाई।
वे जर्मनी जाकर हिटलर से सहायता प्राप्त करना चाहते थे और इसके लिए उन्होंने अफगानिस्तान तथा रूस के रास्ते जर्मनी जाने का फैसला किया।
पलायन का क्रियान्वयन
17 जनवरी 1941 की रात को, नेताजी ने एक पठान का भेष धारण किया। उन्होंने लंबा कोट, पगड़ी और चश्मा पहनकर अपनी पहचान छुपाई।
अपने भतीजे शिशिर बोस की मदद से, वे कार द्वारा कोलकाता से निकल गए।
कोलकाता से उन्होंने बिहार के गोमोह (वर्तमान में नेताजी सुभाष चंद्र बोस जंक्शन) तक ट्रेन का सफर तय किया।
वहां से वे पेशावर, फिर काबुल होते हुए जर्मनी पहुंचे।
महत्व और प्रभाव
इस साहसिक पलायन ने यह साबित किया कि नेताजी किसी भी परिस्थिति में अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रतिबद्ध थे।
नेताजी ने विदेशों में जाकर इंडियन नेशनल आर्मी (आजाद हिंद फौज) की स्थापना की।
उनका यह कदम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा और ऊर्जा देने वाला साबित हुआ।
यह घटना नेताजी के दृढ़ निश्चय और ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ उनकी क्रांतिकारी सोच का प्रतीक है।
नेताजी का यह पलायन भारतीय इतिहास की एक रोमांचक और प्रेरणादायक घटना है, जिसने देशभक्तों को यह संदेश दिया कि आजादी के लिए कुछ भी संभव है।
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