रविवार, 8 दिसंबर 2024

राम दयाल मुंडा (1939–2011)

राम दयाल मुंडा (1939–2011)

जन्म: 23 अगस्त 1939, डिबदाग, तमाड़, झारखंड
मृत्यु: 30 सितंबर 2011

राम दयाल मुंडा एक प्रसिद्ध भारतीय शिक्षाविद, आदिवासी नेता, लेखक, और संगीतकार थे। वे झारखंड की आदिवासी संस्कृति, शिक्षा, और अधिकारों के प्रबल समर्थक रहे। उनका योगदान आदिवासी समाज की पहचान और उनके अधिकारों को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थापित करने में महत्वपूर्ण रहा।


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प्रारंभिक जीवन और शिक्षा

राम दयाल मुंडा का जन्म झारखंड के एक मुंडा आदिवासी परिवार में हुआ।

उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा गांव में पूरी की और उच्च शिक्षा के लिए रांची विश्वविद्यालय में दाखिला लिया।

आगे की पढ़ाई के लिए उन्होंने शिकागो विश्वविद्यालय (यूएसए) से पीएचडी की, जहां उन्होंने भाषाविज्ञान और मानवशास्त्र में शोध किया।



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आजीवन योगदान

1. शिक्षा और विश्वविद्यालय प्रशासन

वे रांची विश्वविद्यालय के उपकुलपति बने और इस दौरान उन्होंने आदिवासी शिक्षा और अनुसंधान को बढ़ावा दिया।

उनकी कोशिशों से विश्वविद्यालय में आदिवासी अध्ययन को एक नई पहचान मिली।



2. आदिवासी संस्कृति और कला का संरक्षण

उन्होंने झारखंड की पारंपरिक नृत्य और संगीत को पुनर्जीवित करने का कार्य किया।

मुंडा आदिवासी समुदाय की भाषा, रीति-रिवाज, और संस्कृति को अंतरराष्ट्रीय मंच पर पहुंचाया।



3. सामाजिक और राजनीतिक भूमिका

झारखंड आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई, जो राज्य के गठन के लिए संघर्षरत था।

वे राज्यसभा के सदस्य भी रहे और आदिवासी अधिकारों के लिए आवाज उठाई।



4. साहित्य और लेखन

उन्होंने कई किताबें और शोध पत्र लिखे, जिनमें आदिवासी समाज, संस्कृति, और राजनीति पर विशेष ध्यान दिया गया।

उनकी रचनाओं में आदिवासी जीवन के संघर्ष और गौरवशाली परंपराओं का जीवंत चित्रण मिलता है।



5. संस्कृति के वैश्विक प्रचारक

राम दयाल मुंडा ने संयुक्त राष्ट्र में भी भारत के आदिवासी समुदाय का प्रतिनिधित्व किया।

उन्होंने आदिवासी जीवन को वैश्विक स्तर पर मान्यता दिलाने का प्रयास किया।





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पुरस्कार और सम्मान

पद्मश्री (2010): भारत सरकार ने उन्हें उनके अद्वितीय योगदान के लिए सम्मानित किया।

साहित्य और कला के क्षेत्र में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार।



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विरासत

राम दयाल मुंडा का जीवन आदिवासी समाज के सशक्तिकरण और उनकी पहचान को स्थापित करने के लिए समर्पित था। वे न केवल एक विद्वान और नेता थे, बल्कि एक सांस्कृतिक आइकन भी थे, जिन्होंने झारखंड और भारत के आदिवासी समाज को नई पहचान दी। उनके योगदान को झारखंड में "अखड़ा संस्कृति" और आदिवासी साहित्यिक आंदोलन के पुनर्जागरण के रूप में याद किया जाता है।

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