पुरंदर की संधि 1776 में मराठा साम्राज्य और अंग्रेजों (ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी) के बीच हुई थी। यह संधि मराठा-अंग्रेज़ संघर्ष का महत्वपूर्ण हिस्सा थी, जिसमें मराठा साम्राज्य ने अंग्रेजों के बढ़ते प्रभाव का विरोध किया।
पृष्ठभूमि
मराठा साम्राज्य में चौथे पेशवा माधवराव की मृत्यु (1772) के बाद राजनीतिक अस्थिरता फैल गई थी।
सत्ता संघर्ष में रघुनाथराव (राघोबा) ने पेशवा बनने का प्रयास किया लेकिन वह असफल रहे।
रघुनाथराव ने अंग्रेजों की सहायता मांगी, जिससे प्रथम अंग्रेज़-मराठा युद्ध (1775-1782) शुरू हुआ।
इस युद्ध के दौरान सूरत की संधि (1775) के तहत रघुनाथराव ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को मराठा क्षेत्रों में लाभ देने का वादा किया।
पुरंदर की संधि की शर्तें
1. रघुनाथराव को हटाना: रघुनाथराव का दावा पेशवा पद पर मान्य नहीं होगा।
2. सिक्के का लेन-देन: रघुनाथराव के समर्थन में दी गई सूरत की संधि के अधिकांश प्रावधान रद्द कर दिए गए।
3. मराठा क्षेत्रों पर अंग्रेज़ों का प्रभाव: ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने मराठा मामलों में हस्तक्षेप करने की शर्तें सीमित कर दीं।
4. सल्तनत के लिए करार: मराठा साम्राज्य ने अंग्रेजों को कुछ क्षेत्रों में व्यापार और सुरक्षा का आश्वासन दिया।
परिणाम
इस संधि से मराठा साम्राज्य और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच अस्थायी शांति स्थापित हुई।
हालांकि, यह संघर्ष अधिक समय तक नहीं रुका और अंग्रेजों और मराठों के बीच अंततः सालबाई की संधि (1782) हुई, जो इस संघर्ष को समाप्त करने का आधार बनी।
पुरंदर की संधि ने स्पष्ट कर दिया कि मराठा साम्राज्य और ब्रिटिश साम्राज्य के बीच टकराव लंबे समय तक चलता रहेगा।
निष्कर्ष
पुरंदर की संधि 1776 मराठा साम्राज्य की राजनीतिक अस्थिरता और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के भारत में बढ़ते प्रभाव का प्रतीक थी। यह संधि अंग्रेजों और भारतीय शासकों के बीच होने वाले कई राजनीतिक समझौतों की श्रृंखला का एक हिस्सा थी, जिसने भारतीय राजनीति पर ब्रिटिश साम्राज्य का प्रभाव बढ़ाया।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें