सोमवार, 11 अगस्त 2025

राजपूत काल – पृथ्वीराज चौहान और तराइन का युद्ध | पहला और दूसरा तराइन युद्ध का इतिहास

पढ़ें पृथ्वीराज चौहान और मोहम्मद गौरी के बीच हुए पहले व दूसरे तराइन युद्ध का विस्तृत इतिहास, कारण, परिणाम और राजपूत काल की वीरगाथा।

परिचय

भारत का मध्यकालीन इतिहास वीरता, बलिदान और गौरवशाली युद्धों से भरा हुआ है। राजपूत काल विशेष रूप से अपने साहसी योद्धाओं और उनकी देशभक्ति के लिए प्रसिद्ध है। इसी काल में अजमेर और दिल्ली के शासक पृथ्वीराज चौहान का नाम सुनहरी अक्षरों में दर्ज है। उनके जीवन का सबसे महत्वपूर्ण और निर्णायक प्रसंग था तराइन का युद्ध, जिसने भारत के इतिहास की दिशा बदल दी।


पृथ्वीराज चौहान – एक संक्षिप्त जीवन परिचय

जन्म: 1166 ई., अजमेर

वंश: चौहान वंश

पिता: सोमेश्वर चौहान

राजधानी: अजमेर एवं दिल्ली

विशेषता: वीरता, युद्ध कौशल और कविता प्रेम


पृथ्वीराज चौहान को "राय पिथौर" भी कहा जाता था। वे सिर्फ एक युद्धवीर ही नहीं बल्कि एक कुशल प्रशासक और कला-प्रेमी भी थे।


तराइन का युद्ध – पृष्ठभूमि

12वीं शताब्दी के अंत में मोहम्मद गौरी (ग़ज़नी का शासक) भारत की ओर बढ़ रहा था। उसकी नज़रें भारत की समृद्धि और रणनीतिक स्थान पर थीं। गौरी ने कई बार भारत पर आक्रमण किया, लेकिन राजपूत संघ ने उसे चुनौती दी।


पहला तराइन का युद्ध (1191 ई.)

कारण

भारत की संपन्नता पर विदेशी आक्रमणकारियों की लालसा

दिल्ली और अजमेर के रणनीतिक महत्व

राजपूतों की स्वतंत्रता को चुनौती


युद्ध का स्थान

तराइन (वर्तमान हरियाणा के थानेसर के पास)

युद्ध का घटनाक्रम

मोहम्मद गौरी ने अजमेर की ओर बढ़ने का प्रयास किया।

पृथ्वीराज चौहान ने 150 राजपूत सरदारों के साथ सेना संगठित की।

भोंजदेव (ग्वालियर) और जयचंद (कन्नौज) जैसे कुछ राजाओं ने मदद नहीं की।

युद्ध में पृथ्वीराज चौहान ने गौरी को घायल कर बंदी बना लिया।


परिणाम

मोहम्मद गौरी को हार माननी पड़ी और उसे जीवित छोड़ दिया गया।

यह निर्णय बाद में घातक साबित हुआ, क्योंकि गौरी ने बदला लेने की ठानी।


दूसरा तराइन का युद्ध (1192 ई.)

कारण

गौरी की पहली हार का बदला

दिल्ली और उत्तरी भारत पर कब्ज़ा


युद्ध की तैयारी

गौरी ने तुर्की घुड़सवार सेना, धनुर्धारी और रणनीतिक युद्ध योजना के साथ वापसी की।

पृथ्वीराज चौहान के पास भारी सेना थी लेकिन एकता और रणनीति की कमी थी।


युद्ध का घटनाक्रम

गौरी ने रात में अचानक हमला किया।

राजपूतों की परंपरागत युद्ध शैली (खुले मैदान में सीधा संघर्ष) को मात दी गई।

कई राजपूत योद्धा वीरगति को प्राप्त हुए।


परिणाम

गौरी की निर्णायक जीत हुई।

दिल्ली और अजमेर पर मुस्लिम शासन की नींव रखी गई।

पृथ्वीराज चौहान को बंदी बना ग़ज़नी ले जाया गया, जहाँ उनके अंतिम दिनों के बारे में विभिन्न कथाएँ प्रचलित हैं।

पृथ्वीराज रासो की कथा

कवि चंद्रबरदाई ने "पृथ्वीराज रासो" में उनका जीवन, युद्ध और गौरी की हार का वर्णन किया है। एक लोकप्रिय कथा के अनुसार, चंद्रबरदाई ने अंधे हुए पृथ्वीराज को तीरंदाज़ी में मार्गदर्शन दिया, और गौरी को मार गिराया। हालांकि यह कथा ऐतिहासिक रूप से प्रमाणित नहीं है, लेकिन लोकमानस में अमर है।


ऐतिहासिक महत्व

यह युद्ध भारत में मुस्लिम शासन की शुरुआत का प्रतीक बना।

राजपूत वीरता का चरम देखा गया।

रणनीति और एकता की कमी के कारण एक सशक्त सभ्यता का पतन हुआ।


भारत का गौरवशाली इतिहास हमें एकता, साहस और रणनीति की सीख देता है। यदि आप ऐसे ही रोचक ऐतिहासिक लेख पढ़ना चाहते हैं, तो हमारे ब्लॉग को सब्सक्राइब करें और इतिहास की इस विरासत को आगे बढ़ाएँ।

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