रानी लक्ष्मीबाई, जिनका जन्म 19 नवंबर 1835 को वाराणसी में मणिकर्णिका तांबे के रूप में हुआ था, को ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के खिलाफ भारत के संघर्ष में सबसे साहसी और प्रेरणादायक शख्सियतों में से एक के रूप में याद किया जाता है। 1857 के भारतीय विद्रोह के दौरान उनकी बहादुरी भरी लड़ाई ने उन्हें प्रतिरोध और देशभक्ति का प्रतीक बना दिया।
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प्रारंभिक जीवन
जन्म नाम: मणिकर्णिका तांबे (उपनाम मनु)
माता-पिता:
पिता: मोरोपंत तांबे, एक ब्राह्मण और पेशवा बाजी राव द्वितीय के दरबार में सलाहकार।
माता: भागीरथी सप्रे, एक समर्पित और धार्मिक महिला।
शिक्षा और पालन-पोषण:
पेशवा के मार्गदर्शन में बिठूर में पली-बढ़ी, जो उन्हें प्यार से "छबीली" (चंचल) कहते थे।
घुड़सवारी, तलवारबाज़ी, तीरंदाज़ी और सैन्य रणनीति सीखी - उस युग की महिलाओं के लिए असामान्य कौशल।
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विवाह और राज्याभिषेक
विवाह: 14 वर्ष की आयु में, उन्होंने झाँसी के महाराजा गंगाधर राव नेवलकर से विवाह किया और रानी लक्ष्मीबाई के नाम से जानी गईं।
गोद लेना: अपने जैविक बेटे की मृत्यु के बाद, उन्होंने दामोदर राव नाम के एक लड़के को गोद लिया।
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अंग्रेजों के साथ संघर्ष
व्यपगत का सिद्धांत: 1853 में अपने पति की मृत्यु के बाद, गवर्नर-जनरल लॉर्ड डलहौजी की नीति के तहत, अंग्रेजों ने दामोदर राव को सही उत्तराधिकारी के रूप में मान्यता देने से इनकार कर दिया और झाँसी पर कब्ज़ा कर लिया।
लक्ष्मीबाई का प्रतिरोध: उन्होंने कसम खाई, “मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी” (मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी)।
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1857 के विद्रोह में भूमिका
1. युद्ध में नेतृत्व:
ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह के दौरान रानी लक्ष्मीबाई ने अपनी सेना का अद्वितीय बहादुरी से नेतृत्व किया।
उन्होंने ब्रिटिश हमलों से झांसी की रक्षा के लिए महिला योद्धाओं सहित एक सेना बनाई।
2. झांसी की घेराबंदी (मार्च 1858):
सर ह्यूग रोज़ के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना ने झांसी पर हमला किया। भयंकर प्रतिरोध के बावजूद, लंबी लड़ाई के बाद किला गिर गया।
3. कालपी और ग्वालियर की लड़ाई:
झांसी से भागने के बाद, वह तात्या टोपे और अन्य विद्रोही नेताओं के साथ सेना में शामिल हो गईं। साथ में, उन्होंने ग्वालियर पर कब्जा कर लिया।
उन्होंने भारी बाधाओं के बावजूद अपने सैनिकों को प्रेरित करना जारी रखा।
4. शहादत:
18 जून 1858 को, वह ग्वालियर के पास युद्ध में मारी गईं। एक पुरुष की पोशाक में, उन्होंने अपनी आखिरी सांस तक लड़ाई लड़ी, एक निडर नेता के रूप में अपनी विरासत को सुनिश्चित किया।
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विरासत
देशभक्ति का प्रतीक: रानी लक्ष्मीबाई साम्राज्यवाद के खिलाफ प्रतिरोध का प्रतीक बन गईं। उनकी कहानी ने स्वतंत्रता सेनानियों की कई पीढ़ियों को प्रेरित किया।
सांस्कृतिक चित्रण:
सुभद्रा कुमारी चौहान की "खूब लड़ी मर्दानी, वो तो झांसी वाली रानी थी" जैसी कविताओं ने उनकी बहादुरी को अमर कर दिया।
अनेक फ़िल्मों, पुस्तकों और नाटकों में उनके वीर जीवन को दर्शाया जाता है।
सम्मान:
भारत भर में सार्वजनिक चौराहों पर रानी लक्ष्मीबाई की मूर्तियाँ सजी हैं।
हर साल 19 नवंबर को उनकी जयंती पर उनकी वीरता का जश्न मनाया जाता है।
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रानी लक्ष्मीबाई साहस, दृढ़ संकल्प और भारतीय नारीत्व की अदम्य भावना की एक चमकती हुई किरण बनी हुई हैं। उनका जीवन स्वतंत्रता और न्याय की लड़ाई का प्रतीक है।
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